बाल गंगाधर तिलक एक उग्र राष्ट्रवादी, स्वतंत्रता सेनानी, वकील एवं समाज सेवक थे। वे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में पहले लोकप्रिय नेता था। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध ज़ोरदार तरीके से आवाज़ उठाई थी, इसीलिये ब्रिटिश अधिकारी उन्हें ‘भारतीय अशांति के पिता’ कहते थे। चूंकि उनकी लोगों के मध्य अत्यधिक स्वीकृति थी, इसीलिये उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि भी मिली हुई थी।
बाल गंगाधर तिलक एक निर्भीक एवं स्वाभिमानी नेता थे। वे अपनी राय बेबाकी व आक्रामक तेवरों के साथ अपने समाचार पत्रों (मराठा और केसरी) में लिखते थे। उन्होंने अपनी इस निर्भीकता एवं स्वाभिमान की कीमत तीन बार (1897, 1909 और 1916) जेल जाकर चुकाई परन्तु कभी भी अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष झुके नहीं। उनका प्रसिद्ध नारा - ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।’ उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक दिखा देता है।
लोगों में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्ष करने की चेतना जागृत करने तथा उन्हें एकजुट करने के लिये तिलक ने अपनी भविष्य उन्मुखी सोच के तहत ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की तथा ‘गणेश महोत्सव’ व ‘शिवाजी उत्सव’ जैसे कार्यक्रमों को एक बड़े पैमाने के उत्सवों में तब्दील किया। यह उनकी दूरदृष्टि ही कही जाएगी कि उनके द्वारा शुरू किया गया ‘स्वदेशी कार्यक्रम’ आज तक भिन्न-भिन्न रूपों में अपनी प्रासांगिकता बनाये हुए है।
परन्तु, बालगंगाधर तिलक एक उग्र राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक ‘सामाजिक रूढ़िवादी’ भी थे। वे ‘गणेश महोत्सव’ और ‘शिवाजी उत्सव’ के आयोजनों से हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य बढ़ते अविश्वास को अच्छे तरीके से भाँप नहीं पाये। साथ ही, उन्होंने अंग्रेजी शासन के कुछ सुधारात्मक प्रयासों का विरोध भी अपनी 'रूढ़िवादिता' के चलते किया, जैसे- जल्दी शादी करने के व्यक्तिगत रूप से विरोधी होने के बावजूद उन्होंने 1891 में ‘एज ऑफ कंसेन्ट विधेयक’ का विरोध किया। इस अधिनियम ने लड़की के विवाह करने की न्यूनतम आयु 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी थी। तिलक ने इस विधेयक को हिन्दू धर्म में दखलंदाजी और एक खतरनाक शुरुआत के तौर पर देखा।
फिर भी, तिलक निःसंदेह एक महान् स्वतंत्रता सेनानी एवं निर्भीक व्यक्तित्व थे। यह स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान का ही परिणाम था कि उनके मरणोपरांत गांधीजी ने उन्हें ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ तथा नेहरूजी ने उन्हें ‘भारतीय क्रान्ति का जनक’ कहा।
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