राष्ट्र संघ की स्थापना को पेरिस शांति सम्मेलन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन ने राष्ट्र संघ की स्थापना में बड़ा योगदान दिया। पेरिस सम्मेलन में जब राष्ट्र संघ की रूपरेखा तैयार हुई, तब विल्सन की माँग पर ही राष्ट्र संघ को वर्साय-संधि का अभिन्न अंग बनाया गया। वर्साय संधि की प्रथम छब्बीस धाराएँ राष्ट्र संघ की रूपरेखा से ही संबंधित हैं। परंतु, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सौहार्द्र का यह मंच अल्पकाल में ही असफल हो गया। इसकी असफलता के पीछे निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे-
- राष्ट्र संघ के प्रमुख सदस्यों ने इसके सिद्धांतों पर विश्वास नहीं किया जबकि किसी भी संगठन की सफलता इसके सदस्यों के रवैये पर निर्भर करती है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के अथक प्रयासों से राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी। लेकिन, बाद में अमेरिका स्वयं इसका सदस्य नहीं रहा। उसकी अनुपस्थिति में राष्ट्र संघ एक दुर्बल संस्था बन गई और उसके लिये आक्रामक तानाशाहों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना या कठोर कार्रवाई करना असंभव हो गया।
- यू.एस.एस.आर. शुरू से ही राष्ट्र संघ को पूंजीवादी राष्ट्रों का संगठन-मात्र मानकर शंका की निगाह से देखता था। सोवियत संघ को शुरू में राष्ट्र संघ की सदस्यता नहीं दी गई थी किंतु जब हिटलर के उत्कर्ष से यूरोपीय शांति को खतरा उत्पन्न हो गया तो सोवियत संघ राष्ट्र संघ में शामिल हुआ।
- 1925 ई. में लोकार्नो समझौते के अनुसार जर्मनी को राष्ट्र संघ की सदस्यता दी गई परंतु, जर्मनी से सहयोग की अपेक्षा व्यर्थ थी क्योंकि राष्ट्र संघ उस ‘घृणित’ वर्साय संधि का एक अभिन्न अंग था जिसको हिटलर मिटाने का उद्देश्य रखता था।
- इटली खुद को मुसोलिनी की फासिस्टवादी विचारधारा के समक्ष समर्पित कर चुका था। उस विचारधारा को ‘विश्व शांति के सिद्धांत’ में बिल्कुल भी विश्वास न था।
- शेष बची बड़ी शक्तियाँ ब्रिटेन और फाँस थे, जो राष्ट्र संघ के भविष्य को निर्धारित कर सकते थे, किंतु ये दोनों देश केवल अपने साम्राज्यवादी-पूंजीवादी हितों के प्रति प्रतिबद्ध थे और आक्रामकों के विरूद्ध ऐसी कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते थे जिससे उनके हितों को धक्का लगे।
इन हालातों में राष्ट्र संघ का असफल होना स्वाभाविक था। परंतु, अपनी असफलता के बावजूद राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को सहयोग और सौहार्द्र का नया मार्ग दिखाया। इसने विश्व को एक बहुमूल्य अनुभव दिया। कालांतर में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसी अनुभव और परीक्षण का ही परिणाम था।
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