स्वतंत्रता के बाद से महिलाओं की विधिक , राजनीतिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आए है. इसका श्रेय मुख्य रूप से, महिला मुद्दों के समर्थक महिला संगठनों, जमीनी स्तर के आंदोलनों और राजनीतिक दलों को जाता है. इस प्रकार इन आंदोलनों में महिलाएं और उनसे जुड़े मुद्दों का समर्थन करने वाले संगठनों की सक्रिय भागीदारी रही है.
इन आंदोलनों ने उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़े मुद्दों में महत्वपूर्ण भागीदार बनने के लिए सक्षम बनाया है –
महिलाओं ने विभिन्न मुद्दों पर प्रमुख भूमिका निभाई. 1946 -47 में बंगाल के तेभागा कृषक आंदोलन में, महिलाओं ने स्वयं को नारी वाहिनी नामक एक पृथक मंच के रूप में संगठित किया और साथ ही आश्रय स्थलों का संचालन तथा संचार लाइनों का रखरखाव भी किया.
तत्कालीन हैदराबाद प्रांत के तेलंगाना क्षेत्र में 1946 से 1950 तक चले एक और प्रमुख कम्युनिस्ट कृषक संघर्ष में, महिलाओं की अत्यधिक सार्थक भागीदारी रही.
आदिवासियों के बीच भी महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के धूलिया जिले के शहादा आदिवासी क्षेत्र में वर्ष 1972 में भूमि से जुड़े एक आंदोलन में भील आदिवासी महिलाओं की एक विशेष भूमिका थी. आंदोलन का समापन एक शराब विरोधी अभियान से हुआ.
गुजरात में 1973 से 75 तक मूल्य वृद्धि के विरुद्ध चलाए गए नवनिर्माण आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भूमिका थी.
गुजरात में टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की महिला शाखा की स्व – कार्यरत महिला संगठन की स्थापना की गई.
पर्यावरण क्षेत्र में वर्ष 1974 में चिपको आंदोलन में महिलाओं की प्रमुख भूमिका थी. इस आंदोलन का नामाकरण महिलाओं के उस कार्यशैली से हुआ था जिसमें वह वृक्षों को लकड़ी के ठेकेदारों द्वारा कटने से बचाने हेतु उन वृक्षों से चिपक गई थी.
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन ने वर्ष 1984 में भोपाल स्थिति यूनियन कार्बाइड कारखाने में रासायनिक गैस रिसाव दुर्घटना के पीड़ितों को न्याय दिलाने के प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाई.
राजनीति में महिलाएं एक संवेदनशील मतदाता समूह के रूप में भी उभरी है और पंचायतों में एक-तिहाई आरक्षण के बल पर तृणमूल स्तर के प्रशासन पर अपनी महत्वपूर्ण छोड़ने में सफल रही है.
No comments:
Post a Comment