तीन तलाक मूल रूप से मुस्लिम निजी कानून के तहत संबंध विच्छेद करने की एक प्रक्रिया है, जिसे 'तलाक-उल-विदत' कहा जाता है, इसके तहत कोई भी मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को जब चाहे तीन बार तलाक बोलकर संबंध विच्छेद कर सकता है, इस प्रकार इस प्रथा को अधिकiश मुस्लिम उलेमा और अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य इस्लाम और शरिया कानून का हिस्सा मानते हैं और इसके अनुसार उसे समाप्त नहीं किया जा सकता, परंतु शिया वर्ग के लोग इसे नहीं मानते हैं l
यह प्रथा महिलाओं के शोषण का बड़ा हथियार है तथा यह प्रथा पुरुष को एक तरफा संबंध विच्छेद करने का अधिकार देता है, जो समाज में पुरुषों का प्रभुत्व एवं महिलाओं की दोयम स्थिति का परिचायक है अतः इस प्रथा को किसी भी दृष्टिकोण से महिला के हित में उचित नहीं माना जा सकता हैl
तीन तलाक के मुद्दे पर एक तरफ जहां मुस्लिम धर्मगुरु इस प्रथा को अपने पर्सनल लॉ का हिस्सा मानते हैं वही सरकार इस प्रथा को मौलिक अधिकार के विरुद्ध मानती हैl
तीन तलाक के मुद्दे पर केंद्र सरकार के रुख:-
तीन तलाक के मुद्दे पर केंद्र सरकार ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है तथा इसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के विरुद्ध माना है, सरकार के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 में जो समानता का अधिकार दिया गया है, तीन तलाक उस संवैधानिक अधिकार को छीन लेता है, इस मामले में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के बीच कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न रखे हैं जो निम्नलिखित हैं:-
- क्या तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत संरक्षण प्राप्त है?
- क्या धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, मौलिक अधिकारों विशेषकर समानता तथा गरिमा के जीवन जीने के अधिकार के समान है?
- क्या पर्सनल लॉ को अनुच्छेद 13 के तहत कानून माना जाएगा ?
- क्या 'तलाक-उल-विदत', निकाह हलाला एवं बहुविवाह राष्ट्रीय संघियों एवं समझौते के तहत सही है?
तीन तलाक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत उचित नहीं माना जा सकता है क्योंकि इस अनुच्छेद के तहत धार्मिक स्वतंत्रता को जो अधिकार प्रदान किया गया है उसे लोक-व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा अन्य उपबंधों के अधीन सीमित किया जा सकता है l
निष्क्रियत: यह कहा जा सकता है कि तीन तलाक की प्रथा ना तो मुस्लिम महिलाओं के हितों के अनुकूल है और ना ही संविधान सम्मत l
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