मैं नास्तिक हूँ क्योंकि मैं पहले घोर आस्तिक था किन्तु अब मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूं। मैं मन पर विवेक की मदद से विजय चाहता हूं। “कोई चेतन शक्ति नहीं है।“ यही हमारा दर्शन है।
लोग कहते हैं कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के जुल्म ढाने वाले पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, इसलिए वो सत्ता का मजा लूट रहे हैं।
मैं यह मानना हूँ कि हमारे पूर्वज बहुत चालाक थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार सजा को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर सिर्फ तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं - प्रतिकार, भय तथा सुधार।
आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अंत वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही सही है और मानवता की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है।
सुधार का मकसद अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु अगर हम इंसानों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी गई सजा की क्या प्रकृति है?
लोग कहते हैं वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। ऐसी 84 लाख सजाओं को गिनाते हो। मैं पूछता हूं कि इंसान पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? ऐसे कितने लोगों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधे के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। मैं मानता हूँ कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक सजा है। मैं पूछता हूं कि दण्ड प्रक्रिया की कहां तक तारीफ करें, जो गरीबी के कारण किसी शख्स को अपराध करने पर बाध्य करे?
क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा बेपनाह तकलीफों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार में पैदा होने पर इंसान का क्या नसीब होगा?
चूंकि वह गरीब है, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। उसके साथी उसका बहिष्कार और अपमान करते हैं। ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि “इंसान को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस काम में तुम्हारी मदद करेगा।“ धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं जानना चाहता हूं , सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर शख्स को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को खत्म किया और इस तरह विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली मुसीबतों से उसे बचाया?
उसने अंग्रेजों के दिमाग में भारत को आजाद कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के दिल में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार छोड़ दें और इस तरह न सिर्फ पूरा श्रमिक समुदाय, बल्कि समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से आजाद करें?
अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हैं, यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के खिलाफ सबसे निन्दनीय अपराध - एक देश का दूसरे देश द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण - कामयाबी से कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मानव जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है?
अगर आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने दुनिया को बनाया है, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से भरी दुनिया - असंख्य दुखों के शाश्वत अनंत गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी इंसान तो पूरी तरह संतृष्ट नहीं है।
आलोचक यह न कहें कि यही उसका नियम है।
अगर वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है।
अगर आलोचक मुझसे पूछे कि मैं इस दुनिया की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? तो मैं तुम्हें बता दू । चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है।
आलोचक का दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किए गए कामों का फल नहीं है? तो मेरा जवाब है जीव-विज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है।
अवश्य ही आलोचक एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हैं, यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा जवाब साफ है। जिस प्रकार वे भूतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। फर्क सिर्फ इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी दूसरी संस्थाएं आखिर में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के खिलाफ हर विद्रोह हर धर्म में हमेशा ही पाप रहा है।
इंसान की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी कमजोरियों और कमियों को समझने के बाद इम्तिहान की घड़ियों में इंसान को बहादुरी से सामना करने के लिए उत्साहित करने, सभी ख़तरों को हिम्मत के साथ झेलने और खुशहाली में उसके विस्फोट को बांधने के लिए ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई।
अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका इस्तेमाल एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई इंसान समाज के लिए ख़तरा न बन जाए। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती है तो उसका इस्तेमाल एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है।
जब इंसान अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेश में हो, तब उसे इस विचार से तसल्ली मिल सकती हे कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा और वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है।
असल में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। पीड़ा में पड़े इंसान के लिए ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के खिलाफ लड़ना होगा। इंसान जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियां उसे पटक सकती हैं।
यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं इंसान के लिए सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूं। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। इसलिए मैं भी एक पुरुष की तरह फांसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूं। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बताई तो उसने कहा, 'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।' मैंने कहा, 'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिए अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूं। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।' पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूं।
No comments:
Post a Comment