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Sunday, December 23, 2018

प्रश्न:- हड़प्पा काल की सामाजिक विशिष्टताओं का वर्णन करते हुए तत्कालीन समाज में उपस्थित ‘प्रगतिशील’ तत्वों का उल्लेख करें।

उत्तर :

     हड़प्पा की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, इसीलिये उस काल की बहुत सारी विशेषताओं को समझने के लिये हमें सीमित सूचनाओं और पुरातात्विक अवशेषों से ही संतुष्ट रहना पड़ता है। 
विभिन्न साक्ष्यों व सूचनाओं से ज्ञात हुई हड़प्पा काल की सामाजिक विशिष्टताएँ-
  • हड़प्पा के समाज में विविध व्यवस्थाओं से लोग जुड़े हुए थे। इनमें पुजारी, योद्धा, किसान, व्यापारी और कारीगर (सुनार, कुम्हार, बुनकर, राजगीर इत्यादि) शामिल थे। 
  • विभिन्न वर्गों के लोगों द्वारा आवास के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के भवनों का उपयोग किया जाता था। जो लोग बड़े घरों में रहते थे, वे धनी वर्ग से थे और जो कारीगरों के क्वार्टरों जैसी कोठरियों में रहते थे, वे मजदूर वर्ग से संबंधित थे। 
  • हड़प्पा काल के लोग सूती और ऊनी कपड़े उपयोग में लाते थे। अनेक स्थानों पर मिली तकलियों और सूइयों से ये साक्ष्य मिलता है कि उस समय कताई और बुनाई का प्रचलन था।
  • हड़प्पा के लोगों केा सजने-सँवरने का शौक था। विभिन्न स्थलों पर मिली पुरुषों और महिलाओं की मूर्तियों से बाल-संवारने के प्रमाण मिलते हैं। इसके अतिरिक्त लोग आभूषण पहनने के भी शौकीन थे जिनमें स्त्री और पुरुषों दोनों द्वारा उपयोग किये जाने वाले नेकलेस, बाजूबंद, कानों के बूंदे, चूड़ियाँ इत्यादि शामिल थीं। 
तत्कालीन समाज के ‘प्रगतिशील’ तत्त्वः 
पंजाब और सिंध प्रदेशों में बड़ी संख्या में मिली पक्की मिट्टी की बनी नारी मूर्तियों से संकेत मिलता है कि उस काल में मातृदेवी का अतिशय सम्मान था और इसी कारण ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज मातृसत्तात्मक प्रकृति का था। उस काल के लोग पेड़ों और पत्थरों के उपासक थे, जो उनका प्रकृति के प्रेम प्रदर्शित करता है। हड़प्पावासियों में पशुओं की उपासना के प्रचलन का भी प्रमाण मिलता है, जो संभवतः पशुओं की उपयोगिता के महत्त्व से प्रेरित था।

प्रश्न:-गुप्तकाल को मूर्तिकला के विकास का उत्कृष्ट काल कहा जाता है। गुप्तकालीन प्रतिमाएँ उत्तरोतर काल में न केवल भारतीय कला का 'मॉडल' रही बल्कि उन्होंने सुदूर-पूर्व तक 'आदर्शों' के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। विवेचना करें।

उत्तर :

गुप्तकाल में कला, विज्ञान और साहित्य ने अत्यधिक समृद्धि हासिल की। ब्राह्मणीय, जैन और बौद्ध देवताओं के प्रतिमा-विज्ञान के मानदण्डों को सटीक बनाया गया तथा उनका मानकीकरण किया गया जिसने उत्तरवर्ती शताब्दियों के लिये आदर्श नमूने के रूप में भारत ही नहीं बल्कि सुदूर-पूर्व तक कार्य किया।

गुप्तकाल में मूर्तिकला की तकनीकों को संपूर्णता मिली। निश्चित शैलियों का विकास हुआ और सूक्ष्मता से सौन्दर्य के आदर्शों का सृजन हुआ। इस काल में पूर्ववर्ती चरणों के कलात्मक व्यवसायों की सभी प्रवृत्तियाँ और रूझान एकीकृत हो कला की पराकाष्ठा में पहुँच गए थे। यथा-गुप्त मूर्तिकला अमरावती और मथुरा की प्रारम्भिक उत्कृष्ट मूर्तिकला का तार्किक परिणाम दिखती है। इसने सुघट्यता मथुरा से और लालित्य अमरावती से लिया है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त मूर्तिकला का संबंध एक ऐसे क्षेत्र  से है जो पूर्णरूपेण भिन्न है। मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता है कि गुप्त कलाकार एक उच्चतर आदर्श के लिये कार्य कर रहे हैं।

गुप्त मूर्तिकला में तीनों धर्मों (बौद्ध, जैन, ब्राह्मण-हिन्दू धर्म) के अलावा गैर-धार्मिक विषयों की भी मूतियाँ बनाई गई। गुप्तकालीन मूर्तियों की निर्मलता, अंग सौन्दर्य, हाव-भाव एवं जीवन्तता ने मूर्तिकला को ऊँचाई प्रदान की। गुप्तकाल की सारनाथ से प्राप्त ‘धर्म चक्र प्रवर्त्तन मुद्रा’ तथा सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त बुद्ध की ताम्रमूर्ति अतिविशिष्ट हैं। गुप्तकाल में जैन धर्म पर हिन्दू प्रभाव बढ़ रहा था, इसलिये तीर्थकर के बगल में इन्द्र, सूर्य, कुबेर आदि की मूर्तियाँ बनने लगी। इसी काल में दशावतार की मान्यता आर्ई। एलोरा (दशावतार मूर्तियाँ), खजुराहो, देवगढ़ आदि जगहों पर विष्णु के 10 अवतारों को मूर्त रूप दिया गया।

यह कहा जा सकता है कि गुप्तकाल में भरहुत, अमरावती, सांची और मथुरा की कला एक-दूसरे के निकट आते-आते मिलकर एक हो गई और मूर्तिकला के नए मानदण्ड बने। संरचना में, महिला आकृति आकर्षण का केन्द्र बन गई एवं सौन्दर्य के नए आदर्श का आविर्भाव हुआ। गुप्त मूर्तिकला ने नग्नता को भी एक नियम के रूप में समाप्त कर आदर्श स्थापित किया। अतः यदि गुप्तकाल को मूर्तिकला का उत्कृष्ट काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Thursday, August 16, 2018

प्रश्न:- मौर्योत्तर काल में कला तथा संस्कृति के विकास को दर्शाते हुए इस काल में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए विकास को स्पष्ट करें।

            मौर्योत्तर काल में भारतीय शासन में विदेशियों का बड़े पैमाने पर समावेश हुआ, जिससे भारतीय कला तथा संस्कृति विदेशी तत्त्वों से प्रभावित होकर नए रूप में  उभरी।
           समाज में नए शासकों को तृतीय श्रेणी के क्षत्रिय का दर्जा दिया गया। इससे हिंदू धर्म का सामाजिक आधार व्यापक हुआ। वहीं नए नए लोगों के आगमन तथा व्यापारियों के क्रियाकलाप में वृद्धि होने से बौद्ध धर्म भी प्रभावित हुआ। दान से मिलने वाले धन की अधिकता से यह भौतिक कार्यों की ओर आकर्षित हुए। परिणामतः कर्मकांडों पर आधारित महायान संप्रदाय का विकास हुआ। कुषाण शासक कनिष्क इसी धर्म के संरक्षक थें। 
             विदेशियों के प्रभाव से भारत में मूर्तिकला तथा स्थापत्य कला का भी विकास हुआ। मूर्तिकला में गांधार तथा मथुरा शैली का उद्भव हुआ। गांधार कला में रोम तथा यूनान की शैली में बुद्ध की प्रतिमाओं को बनाया गया है। मथुरा कला गंधार शैली की तुलना में अधिक आध्यात्मिक है। स्थापत्य के क्षेत्र में नए बौद्ध विहारों की स्थापना की गई भरहूत तथा साँची के स्तूपों पर भी उस काल के प्रभाव को देखा जा सकता है। स्थापत्य के क्षेत्र में नागार्जुनकोंडा तथा अमरावती बौद्ध कला के बड़े केंद्रों के रूप में उभरे, जहाँ बुद्ध के जीवन की कथाएँ चट्टानों पर अंकित की गई हैं।
              साहित्य के क्षेत्र में संस्कृत भाषा का विस्तार हुआ। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में संस्कृत भाषा के प्रभाव को देखा जा सकता है। अश्वघोष ने संस्कृत में  ‘बुद्धचरित’ तथा ‘सौन्दरनंद’ की रचना की। वहीं बोद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘महावस्तु’ तथा ‘दिव्यवादन’ की रचना भी मिश्रित संस्कृत में की गई। धार्मिकतेर साहित्य में वात्सायन का कामसूत्र इसी काल में लिखा गया। इसमें नगरों में रहने वाले पुरुषों का चित्रण नगरीय संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। इसके अलावा भारतीय नाट्य कला में यवनिका अर्थात पर्दे का प्रयोग इस युग की बड़ी घटना है।
विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए विकास:-
             यूनानियों के प्रभाव से भारत में ज्योतिष शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र,  वनस्पति शास्त्र और रसायन शास्त्र का विकास हुआ। चरक तथा सुश्रुत ने इन क्षेत्रों में परिपक्व ज्ञान का उल्लेख किया है। चरक संहिता में चिकित्सा के लिए प्रयोग होने वाले असंख्य वनस्पतियों का उल्लेख है। कई वनस्पतियों को मिलाकर औषध बनाने का  साक्ष्य हमारे रसायन शास्त्र के परिपक्व ज्ञान को दर्शाता है।
            तकनीक के क्षेत्र में पतलून  तथा चमड़े के जूते बनाने की तकनीक को देखा जा सकता है। इसके अलावा सिक्का निर्माण की तकनीक  में भी रोमन प्रभाव को देखा जा सकता है। इस कार्य में शीशे के काम पर विदेशी तरीकों का विशेष प्रभाव पड़ा और व्यापक प्रगति हुई। इसके अलावा रस्सी से बने रकाब  का प्रयोग भी इसी काल में हुआ।
स्पष्ट है कि इस काल में उपरोक्त सभी क्षेत्रों में भारत का बहुआयामी विकास हुआ।

Wednesday, January 10, 2018

Culture

  • भारत में धर्म 
  • भारतीय साहित्य 
  • प्रमुख भारतीय भाषाएँ 
  • भारतीय स्थापत्य कला तथा मूर्तिकला 
  • भारतीय हस्तशिल्प 
  • भारतीय चित्रकलाएं
  • भारतीय संगीत
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  • नाटक, रंगमंच और सिनेमा
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  • पारम्परिक भारतीय वस्त्र एवं भोजन
  • युद्धकला और परम्परागत खेल
  • प्राचीन विज्ञान और प्रौद्योगिकी
  • भारत के सांस्कृतिक संस्थान