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Friday, December 27, 2019

प्रश्न:- विदेश नीति से आप क्या समझते हैं भारत के विशेष संदर्भ में विदेश नीति पर प्रभाव डालने वाले घरेलू कारक का उदाहरण सहित चर्चा करें?

 
 किसी देश या आसपास के वातावरण या अन्य देश के साथ आपसी संबंध के लिए निर्धारित किए गए विचारों और नीतियों को उस देश की विदेश नीति कहा जाता है। जे. बंदोपाध्याय के अनुसार 'विदेश नीति से तात्पर्य राष्ट्रीय व्यवस्था में उद्देश्य एवं माध्यमों का चुनाव करने की प्रक्रिया है 'अर्थात राष्ट्रों के साथ संबंध बनाए रखने का राष्ट्रीय प्रोटोकोल है।

भारतीय विदेश नीति के निर्धारण में बाहरी  कारकों  के साथ साथ घरेलू कारकों की भी अहम भूमिका होती है जिसमें से कुछ प्रमुख घरेलू कारक निम्नलिखित हैं:-

1. भौगोलिक कारक 
     भू-भाग या भौगोलिक कारकों के द्वारा विदेश नीति अत्यधिक प्रभावित होती है जिसमें देश की स्थिति, आकार और आकृति आदि महत्वपूर्ण हैं , उदाहरण के लिए भारत का विशाल क्षेत्र हिमालय से घिरा होना, विश्व के सबसे बड़ा महासागर हिंद महासागर के दक्षिण में होना, तीन तरफ से महासागरों से घिरा होना आदि ।

2.जनसंख्या
     भारत  विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश होने के साथ-साथ सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है अर्थात बेहतर मानव संसाधन और तीव्र गति से विकास करने वाला देश होने के कारण अन्य देशों को आकर्षित करता है।

3.ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारक
     भारत की विदेश नीति निर्माण इतिहास और संस्कृति से प्रेरित है क्योंकि एक तरफ अशोक के शक्ति एवं सहस्तित्व के विचार को अपनाया है वही चाणक्य  के  इस विचार को भी अपनाया है कि राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए किसी भी उपाय का सहारा लिया जा सकता है । साथ ही  पारंपरिक और सांस्कृतिक लगाव भी  विदेश नीति के निर्धारण को प्रभावित करती है जैसे अरुणाचल प्रदेश की संस्कृति (खान-पान ,रहन-सहन आदि )का चीन की संस्कृति से जुड़ा होना ।

4.आर्थिक विकास
     वर्तमान में भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होने के साथ तीव्र  गति से विकास करने वाला देश है जो विश्व का व्यापक बाजार बना है जिससे अन्य देश  भारत की ओर आकर्षित हो रहे हैं, हालिया समय में  "मेक इन इंडिया कार्यक्रम"   के तहत ज्यादा से ज्यादा निवेश को आकर्षित करने का प्रयास भी किया गया है ।

5. शासन प्रणाली
    अन्य घरेलू कारकों के अलावा यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारक  है कि किसी देश की शासन प्रणाली कितनी पारदर्शी हो उत्तरदाई है तथा आंतरिक समस्याओं को सुलझाने में कितना सक्षम है क्योंकि यह विदेशी नीति को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं उदाहरण के तौर पर जम्मू कश्मीर के  मुद्दे आदि ।

उपर्युक्त कारकों के अलावा और भी महत्वपूर्ण कारक है जो विदेश नीति के निर्धारण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं जिसमें नेतृत्व की प्रवृत्ति आदि महत्वपूर्ण है ।

Saturday, September 15, 2018

प्रश्न:-वर्तमान समय में एक तरफ गहरे होते भारत-अमेरिका के रिश्ते एवं दूसरी तरफ पाकिस्तान-चीन-रूस की बढ़ती दोस्ती दक्षिण एशिया के राजनीतिक संतुलन का समीकरण बदल सकती है। कथन की समीक्षा करें।

     द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की तथा विश्व ‘शीतयुद्ध’ में उलझ गया। नव स्वतंत्र देशों की अगुवाई करते हुए भारत ने शीतयुद्ध में मुख्य प्रतिद्वंद्वी अमेरिका तथा सोवियत संघ के गुटों से स्वयं को अलग रखा तथा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। इसी क्रम में पाकिस्तान अमेरिका के गुट में शामिल हुआ। हालाँकि 1962 में भारत-चीन युद्ध के पश्चात् भारत का झुकाव सोवियत संघ की तरफ हो गया। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति हुई तथा विश्व अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय होकर उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की ओर तेज़ी से बढ़ा।
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     90 के दशक में भारत में भी वैश्वीकरण एवं उदारीकरण को अपनाने के साथ-साथ पहलकारी एवं सक्रिय विदेश नीति का परिचय देते हुए सभी देशों से सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने पर बल दिया, लेकिन इस क्रम में भी ‘रूस’ भारत का सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार एवं मित्र बना रहा। परंतु भारत-अमेरिका परमाणु समझौता एवं एशिया की उभरती महाशक्ति ‘चीन’ के उदय ने एशिया में शक्तियों के समीकरण में बड़ा बदलाव ला दिया।
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   भारत अमेरिका के मध्य हाल ही में संपन्न ‘लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग’ तथा चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर, अमेरिका में बढ़ता पाकिस्तान विरोध, भारत में उड़ी हमले के बावजूद रूस-पाकिस्तान का संयुक्त सैन्य अभ्यास, रूस द्वारा दक्षिण चीन सागर में चीन का समर्थन करना आदि उदाहरण एक तरफ भारत-रूस संबंधों में दूरी तथा भारत-अमेरिका संबंधों में निकटता प्रदर्शित करते हैं तो दूसरी ओर चीन-पाकिस्तान तथा रूस की बढ़ती ‘दोस्ती’ को स्पष्ट करते हैं।

      पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि एशिया की भू-राजनैतिक अवस्था 'ब्रिटिश सरकार' ने कंपनियों में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुशासन को दूर करने के लिए 1773 रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया ।

     उल्लेखनीय है एक तरफ जहां कंपनी के कर्मचारियों के कार्य प्रणाली में पारदर्शिता  और कर्मचारियों के बीच अवैध तरीके से धन एकत्रित कर भारत से इंग्लैंड ले जाने की होड़ लगी थी, वही कंपनी व्यापार घाटे में चल रहा था जिसके कारण कंपनी ने ब्रिटिश सरकार से ऋण की मांग की थी, इस परिस्थिति को देखते हुए सरकार ने एक गोपनीय समिति का गठन किया तथा इसकी सिफारिश पर 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया जिसके निम्नलिखित प्रावधान थे_
  • इस  अधिनियम के तहत परिषद गवर्नर जनरल की संरचना का निर्माण किया गया जो कानून बनाने वाली परिषद के साथ साथ बंगाल के लिए एक नई कार्यपालिका भी थी ।
  • इस अधिनियम के तहत मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी को कोलकाता परदेसी के अधिकार कर  दिया गया जिसका प्रमुख 'गवर्नर जनरल'होता था, गवर्नर जनरल की परिषद में 4 सदस्य थे , संपूर्ण कोलकाता प्रेसीडेंसी का प्रशासन और सैनिक शक्ति इसी सरकार में नहीं थी।
  • इस अधिनियम के तहत 1774 में कोलकाता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई जिस के एक  प्रमुख न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे , जिन्हें फौजदारी , धार्मिक तथा विदेशी मामलों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई का अधिकार दिया गया ।
  • कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए इस अधिनियम के तहत कर्मचारियों के निजी व्यापार करने तथा  भारतीयों से उपहार या रिश्वत लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • सिविल सेवाओं में सुधार करते हुए राजस्व समाहर्ता को मजिस्ट्रेट का अधिकार दे दिया गया अर्थात अब उन्हें दीवानी मामलों की सुनवाई तथा दंडित करने का अधिकार दिया गया ।
      उपर्युक्त प्रावधानों के अलावा रेगुलेटिंग एक्ट की प्रमुख विशेषता यह भी थी कि इस अधिनियम के तहत पहली बार कंपनी की प्रशासनिक कार्यों को ब्रिटिश संसद के निगरानी में लाया गया जिनमें व्यापार और वाणिज्य का मामला शामिल नहीं था।
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     महाशक्तियों के वर्चस्व प्रदर्शन का नया अखाड़ा बन रही है। वर्चस्व की यह लड़ाई अमेरिका बनाम चीन की अधिक है जिसमें भारत और पाकिस्तान का प्रयोग किया जा रहा है। रूस पुनः महाशक्ति का दर्जा पाने हेतु इस संघर्ष में है। ये स्थितियाँ निःसंदेह एशिया के शक्ति संतुलन को बिगाड़ कर नया तनाव उत्पन्न कर रही है।
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     अमेरिका की ‘एशिया धुरी’ नीति तथा चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ नीति विभिन्न एशियाई देशों को अपने गुट में शामिल करने की नीति है, जो पुनः चीन बनाम अमेरिका के वर्चस्व का शीतयुद्ध प्रतीत होता है। यदि ऐसा हुआ तो इसका केन्द्र एशिया होगा और शक्ति संतुलन की दिशा पहले से पूर्णतः भिन्न होगी।

Sunday, August 19, 2018

प्रश्न:-'गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता' पर टिप्पणी करें,

      गुटनिरपेक्ष आंदोलन का गठन अफ्रीका, एशिया, लेटिन अमेरिका एवं विश्व के अन्य उन देशों को मिलाकर किया गया, जो तत्कालीन दौर में उपनिवेशी समस्याओं से गुजर रहे थे। आंदोलन की स्थापना के शुरूआती वर्षों में इसके सदस्य देशों में से कुछ ने तो स्वतंत्रता प्राप्त कर ली और कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया में थे। इसका गठन करने वाले पाँच देशों के प्रमुखों में पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू भी थे।
       गुटनिरपेक्ष आंदोलन का गठन जिन परिस्थितियों और उद्देश्य को लेकर किया गया था, अब वे कितने प्रासंगिक हैं, इसमें संदेह है। हाल ही में वेनेजुएला में हुए इस सम्मेलन में हमारे प्रधानमंत्री के भाग न लेने की वजह भी यही रही है। भारत की ओर से उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नेतृत्व में एक दल ने सम्मेलन में भाग लिया।
आंदोलन वास्तव में कितना प्रासंगिक है?

  • ऐसा माना जा रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री भारत को विकास और सुरक्षा के जिस मार्ग पर ले जाना चाह रहे हैं, उसके लिए अब गुट निरपेक्ष आंदोलन की सार्थकता नहीं है।
  • एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि गुट निरपेक्ष आंदोलन का गठन ही असमान देशों को लेकर किया गया था। इसलिए इन देशों को आपस में जोड़ने वाले तत्वों का अभाव है।
  • गुट निरपेक्ष देशों ने भारत के कठिन समय में कभी उसका साथ नहीं दिया। चाहे वह 1962 का चीनी आक्रमण हो या 2002 का मुुंबई आतंकी हमला। फिर भी कहा जा सकता है कि गुट निरपेक्ष देश किसी देश के साथ किसी विशेष अवसर पर भले ही खड़े न हुए हों, लेकिन विश्व-स्तर पर उनके मुद्दे एक ही रहे हैं। इस संगठन के अन्य देशों की समस्याओं से भारत ने भी अपने का अलग ही रखा है।
  • गुट निरपेक्ष आंदोलन के पास ऐसी कोई विशेष विचारधारा नहीं है, जिससे चिपके रहने की आवश्यकता महसूस हो। इसका गठन उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नस्लवाद के विरोध में किया गया था। इसमें परमाणु निरस्त्रीकरण पर भी आम सहमति थी। बाद में भारत ने ही परमाणु अप्रसार संधि से अलग होकर इस परंपरा को तोड़ा।
  • सिंगापुर से लेकर क्यूबा तक के विभिन्न परिवेश के देशों का सदस्य होना इस संगठन की खूबसूरती है। लेकिन मिस्र के इस्राइयल के तथा भारत के सोवियत संघ के साथ हुए समझौते बहुत सफल नहीं रहे।
  • यह सच है कि अब गुट निरपेक्ष आंदोलन की निरर्थकता के बारे में बहुत से तर्क दिए जा सकते हैं और दिए भी जा रहे हैं, परंतु कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिन पर विचार करके लगता है कि इसकी सदस्यता बेमानी भी नहीं है।
गुट निरपेक्ष संगठन का भारत के लिए महत्व
  • पहली बात तो यह कि गुट निरपेक्ष संगठन किसी देश के व्यक्तिगत उत्थान में कोई अड़चन पैदा नहीं करता। इसके सदस्य देश अपने विकास के लिए निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं।
  • दूसरे, पाकिस्तान के साथ बदले रिश्तों को देखते हुए भले ही कोई गुट निरपेक्ष देश उसे अलग-थलग करने को सहमत न हो, परंतु आतंकवाद विरोधी हमारी मनोभावना के प्रदर्शन के लिए यह संगठन एक अच्छा मंच सिद्ध हो सकता है।
  • भारत अब संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का इच्छुक है। गुट निरपेक्ष देशों का समर्थन निश्चित रूप से उसकी इस मांग को वजनदार बनाता है।
  • भारत जिस प्रकार की विदेश नीति को अपना रहा है, उसको देखते हुए गुट निरपेक्ष संगठन का आज भी महत्व है। गुट निरपेक्ष संगठन तो हमारे ही वृहद विश्व के सपने का हिस्सा है। हो सकता है कि आज की विदेशी नीति की व्यस्तता को देखते हुए भले जी इस संगठन की सदस्यता हमें अथपूर्ण न लगे, परंतु इस परिवर्तनशील दौर में विश्व समुदाय को साथ लेकर चलना ही दूरदर्शिता है।

Thursday, August 16, 2018

प्रश्न:-चीन की "एक चीन नीति" से आप क्या समझते हैं l इस नीति के पीछे चीन के निहित उद्देश्य को स्पष्ट कीजिएl चीन की यह नीति दक्षिण एशिया विशेषकर भारत को किस प्रकार प्रभावित कर सकती है?


              चीन "एक चीन नीति" के अंतर्गत उन क्षेत्रों को अपना हिस्सा बताता है जहां उसने किसी न किसी प्रकार से नियंत्रण स्थापित किया हुआ है यथा- ताइवान पर चीन का नियंत्रण हलाकि तायवान को काफी हद तक आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त है किंतु उसकी  विदेशी मामलों एवं सुरक्षा संबंधित मामलों में चीन का ही अधिकार हैl चीन तिब्बत को भी अपना क्षेत्र बताता है जबकि तिब्बत ऐतिहासिक तौर पर चीन का हिस्सा नहीं है, 
              इस प्रकार चीन इन सभी क्षेत्रों को अपने अंदर बताता है और एक चीन की बात करता है और 'एक चीन नीति' का सम्मान करने की बात बहुत ही दृढ़ता से वैश्विक पटल पर सामने रख रहा हैl

एक चीन नीति के पीछे चीन का उद्देश्य:-
  •  चीन अपना एकाधिकारवादी नजरिया वैश्विक पटल पर प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा है
  •  एशियाई क्षेत्रों में इस के दबदबे को प्रदर्शित कर रही है
  •  इस नीति के तहत चीन एशिया में शक्ति-संतुलन को अपनी ओर छुकाने का प्रयास कर रहा है हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी इस नीति को मान्यता प्रदान करने की बात कही है 
'एक चीन नीति' का भारत पर प्रभाव :-
              चीन की वन चाइना पॉलिसी उसकी साम्राज्यवादीता को प्रदर्शित करती है इसके तहत वह चाहता है कि जिस क्षेत्र पर भी उसका दखल हो प्रत्येक देश की मान्यता प्रदान की जानी चाहिए l
              यदि चीन की नीति पर नियंत्रण नहीं किया गया तो वह समूचे दक्षिण चीन सागर को अपना क्षेत्र बताएगा और अन्य देशों से उसका सम्मान करने की बात कहेगा तथा निकट भविष्य में यह भी संभव है कि अरुणाचल प्रदेश और पाक अधिकृत कश्मीर पर अपना दावा प्रस्तुत कर उसे एकल चीन का  भाग का दावा कर सकता है जिससे अखंडता के साथ-साथ भारत की संप्रभुता पर भी असर  पड़ेगा l
               निष्कर्ष: यह कहा जा सकता है कि चीन की वन चाइना पॉलिसी उसके प्रसार वादी को स्पष्ट करती है इस विधि को समुचित तरीके से नियंत्रित  करने की आवश्यकता है ताकि भारत सहित दक्षिण एशियाई क्षेत्र की अखंडता को भी कायम रखा जा सकेl