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Tuesday, January 8, 2019

प्रश्न:- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-370, जिसके साथ हाशिया नोट ‘जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध’ लगा हुआ है, यह किस हद तक अस्थायी है? भारतीय राज्यव्यवस्था के संदर्भ में इस उपबंध की भावी संभावनाओं पर चर्चा कीजिये।

भारतीय संविधान के अधीन जम्मू-कश्मीर राज्य की विशेष स्थिति है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक (1) में परिभाषित भारत के राज्य क्षेत्र का एक भाग है। परंतु अनुच्छेद 370 इसे विशेष स्थिति (स्वयं का संविधान) प्रदान करता है, जिसके कारण भारतीय संविधान के सभी उपबंध, जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होते।

जम्मू-कश्मीर की इस विशेष स्थिति का प्रावधान अंतरिम या अस्थायी है, न कि स्थायी, जिसके लिये निम्नलिखित कारक ज़िम्मेदार थे । कश्मीर के विलय के लिये स्वीकृति-पत्र, जिसके तहत भारत डोमोनियन को इस रियासत के प्रतिरक्षा, विदेशी कार्य और संचार संबंधी विधि बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया।

भारतीय संविधान सभा में गोपालास्वामी आयंगर (जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन दीवान, अनुच्छेद 370 के ड्राफ्ट निर्माता) का यह तर्क कि कश्मीर में शांति स्थापित होने तक यह अस्थायी व्यवस्था बनी रहे। अनुच्छेद 370 को राष्ट्रपति द्वारा समाप्त किया जा सकता है, किंतु जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश के आधार पर।
यदि वर्तमान समय में हम अनुच्छेद 370 का अवलोकन करें तो पाएंगे कि यह 1950 वाली स्थिति में नहीं है बल्कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा एवं विधानसभा की सिफारिश के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से इसमें काफी परिवर्तन किये जा चुके हैं, जैसे-

  • 1952 का आदेश उन विषयों के बारे में था, जिनके संबंध में संघ की अधिकारिता जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा लंबित रहने तक राज्य पर होगी।
  • 1954 के आदेश के तहत जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने संसद की अधिकारिता को प्रतिरक्षा, विदेशी कार्य एवं संचार से आगे अन्य मामलों तक विस्तृत कर दिया।
  • ऐसे ही आदेश 1963, 1964, 1965, 1966, 1972, 1974 एवं 1976 में भी आए, जिन्होंने अनुच्छेद 370 की शक्ति को कम किया तथा संसद की शक्ति को विस्तार दिया।
  • विषय-वस्तु के दूसरे भाग में हम जम्मू-कश्मीर के उन विशेषाधिकारों के बारे में बताएंगे जो आज भी मौजूद हैं-
  • संसद बिना विधानसभा की अनुमति के जम्मू-कश्मीर के नाम, क्षेत्र, निवास तथा वहाँ के लोगों के मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 365 का प्रयोग जम्मू-कश्मीर में नहीं किया जा सकता।
  • संघ को जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुच्छेद 360 के अधीन वित्तीय आपात की उद्घोषणा करने की शक्ति नहीं प्राप्त है।
  • जम्मू-कश्मीर में पहले राज्यपाल शासन एवं उसके पश्चात् (राष्ट्रपति शासन) लागू करने की विशेष स्थिति।


     जम्मू-कश्मीर के लिये उपर्युक्त प्रावधानों के बावजूद अनुच्छेद 370 का उपबंध-3 यह व्यवस्था करता है कि भारत का राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सहमति से (संविधान सभा पुन: सृजित कर) अनुच्छेद 370 की समाप्ति का आदेश पारित कर सकता है। भारतीय राजव्यवस्था के संदर्भ में अनुच्छेद 370 का स्थायित्व भारत की राष्ट्रीय एकता व अखंडता के संदर्भ में खतरनाक है, क्योंकि इसे आधार बनाकर नक्सलवाद व उग्रवाद प्रभावित राज्यों में भी स्वायत्तता की मांग की जा सकती है। साथ ही उत्तर-पूर्व के राज्य भी इसी धारा के आधार पर स्वायत्तता की मांग कर सकते हैं, जो कि धारा 371 (A, B, C) से अधिक स्वतंत्रता व स्वायत्तता प्रदान करती है। इससे भारत में संघवाद की भावना पर विपरीत असर पड़ सकता है और केंद्र-राज्य संबंध भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकते हैं। साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष शक्तियाँ प्रदान किये जाने से अन्य राज्यों में असमानता की भावना बलवती होती है। इसी वज़ह से सहकारी संघवाद के ज़रिये राज्यों को सशक्त करने का जो प्रयास किया जा रहा है, उस पर विपरीत असर पड़ सकता है।

भारत की एकता, अखंडता और विकास के लिये अनुच्छेद 370 को समाप्त करने हेतु लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण व संवैधानिक तरीके से प्रयास किये जाने चाहिये। ऐसा होने से देश की राजनीतिक, प्रशासनिक तथा संवैधानिक व्यवस्था में एकरूपता आएगी, भारत की एकता मज़बूत होगी, जम्मू-कश्मीर तथा देश के विकास में तेज़ी आएगी।

परंतु अनुच्छेद-370 की समाप्ति का लक्ष्य राजनीतिक लाभ या वोट बैंक के लिये नहीं होना चाहिये। वहाँ की जनता की आम सहमति इसकी आवश्यक शर्त होनी चाहिये, क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो अलगाववादी प्रवृत्ति में तेज़ी आ सकती है।

Sunday, December 23, 2018

प्रश्न:-राजभाषा पर गठित संसदीय समिति की हाल ही में राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई सिफारिशों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि इन पर अमल करना कितना चुनौतिपूर्ण सिद्ध होगा?

उत्तर :

राजभाषा पर गठित संसदीय समिति की 9वीं रिपोर्ट में हिन्दी केा अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने के लिये अनेक सिफारिश की हैं जिनमें से कई सिफारिशों को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई है। ऐसी प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं-
  • राष्ट्रपति और केंद्रीय मंत्रियों सहित सभी गणमान्य व्यक्ति, जो हिन्दी पढ़ सकते हैं और बोल सकते हैं, उनसे अनुरोध किया गया है कि वे अपने भाषण एवं बयान केवल हिन्दी में ही दे।
  • एयर इंडिया टिकटों पर हिन्दी का इस्तेमाल करने तथा एयरलाइन यात्रियों के लिये हिन्दी पत्रिकाओं और समाचार पत्रों को शामिल करने की सिफारिश को भी स्वीकार कर लिया गया। वायुयानों में होने वाली घोषणाएँ पहले हिन्दी, फिर अंग्रेजी में होंगी।
  • सभी सरकारी और अर्द्ध-सरकारी संगठनों को अपने उत्पादों के नामों का उल्ल्ेख हिन्दी में करना होगा।
  • CBSE स्कूलों एवं केंद्रीय विद्यालयों में कक्षा 10 तक हिन्दी को अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश को सैद्धांतिक स्वीकृति प्रदान कर दी गई।
हालाँकि, इनमें से अधिकांश विषय ऐसे हैं जिन पर किसी प्रकार की आपत्ति उठने की संभावनाएँ नगण्य है किंतु, गणमान्य व्यक्तियों के भाषण, विद्यालयों में हिन्दी अनिवार्य करने जैसे निर्णयों को लागू करने के समक्ष कई बड़ी चुनौतियाँ हैं-
  • गैर हिन्दी भाषी राज्यों विशेषकर पूर्वोतर और दक्षिण भारत के लोग हिंदी भाषा में दिए गए भाषणों की गहराई को ठीक से समझ नहीं पाते। 
  • भारत एक बहुसांस्कृतिक और बहुभाषिक राष्ट्र है जहाँ किसी एक भाषा की प्रधानता नहीं है। यहाँ केवल 40% जनसंख्या द्वारा हिंदी बोली जाती है हिंदी को सर्वस्वीकार्य बनाना एक चुनौती है।
  • इस प्रकार के फैसलों से जहाँ एक तरफ गैर-हिंदी भाषी राज्यों में अलगाव का भाव पैदा हो सकता है वहीं क्षेत्रीय भाषाएँ एवं बोलियाँ जो लुप्त होती जा रही है, उन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
यद्यपि, हिंदी भारत की केवल 40% जनसंख्या द्वारा ही बोली जाती है लेकिन पूर्वोतर एवं दक्षिण भारत सहित सभी राज्यों में हिंदी समझी जाती है। दूसरी ओर, इस फैसले में किसी अनिवार्यता को शामिल नहीं किया गया क्योंकि, गणमान्य व्यक्तियों से हिंदी में भाषण के लिये केवल अनुरोध किया गया है तथा विद्यालयों में 10वीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने के लिये केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों से बात करके नीति बनाने का प्रावधान किया गया है। अतः यह फैसला संविधान की मूल भावना का ही सम्मान करता है अतः इसे क्षेत्रीय बोलियों एवं भाषाओं के खिलाफ नहीं देखा जाना चाहिये। इसके अलावा ‘त्रिभाषा सूत्र’ के उपयुक्त क्रियान्वयन पर जोर देकर क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिये संसदीय समिति की सिफारिशों पर अमल करना एक सकारात्मक कदम होगा।

Friday, November 2, 2018

प्रश्न:-1773 के भारत रेगुलेटिंग एक्ट लाने के पीछे निहित कारणो का जिक्र करें तथा उसके प्रावधानों का भी उल्लेख करें |(10 marks )

   
  'ब्रिटिश सरकार' ने कंपनियों में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुशासन को दूर करने के लिए 1773 रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया ।

     उल्लेखनीय है एक तरफ जहां कंपनी के कर्मचारियों के कार्य प्रणाली में पारदर्शिता  और कर्मचारियों के बीच अवैध तरीके से धन एकत्रित कर भारत से इंग्लैंड ले जाने की होड़ लगी थी, वही कंपनी व्यापार घाटे में चल रहा था जिसके कारण कंपनी ने ब्रिटिश सरकार से ऋण की मांग की थी, इस परिस्थिति को देखते हुए सरकार ने एक गोपनीय समिति का गठन किया तथा इसकी सिफारिश पर 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया जिसके निम्नलिखित प्रावधान थे_
  • इस  अधिनियम के तहत परिषद गवर्नर जनरल की संरचना का निर्माण किया गया जो कानून बनाने वाली परिषद के साथ साथ बंगाल के लिए एक नई कार्यपालिका भी थी ।
  • इस अधिनियम के तहत मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी को कोलकाता प्रेसीडेंसी के अधिकार कर  दिया गया जिसका प्रमुख 'गवर्नर जनरल'होता था, गवर्नर जनरल की परिषद में 4 सदस्य थे , संपूर्ण कोलकाता प्रेसीडेंसी का प्रशासन और सैनिक शक्ति इसी सरकार में  निहित  थी।
  • इस अधिनियम के तहत 1774 में कोलकाता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई जिस के एक  प्रमुख न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे , जिन्हें फौजदारी , धार्मिक तथा विदेशी मामलों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई का अधिकार दिया गया ।
  • कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए इस अधिनियम के तहत कर्मचारियों के निजी व्यापार करने तथा  भारतीयों से उपहार या रिश्वत लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • सिविल सेवाओं में सुधार करते हुए राजस्व समाहर्ता को मजिस्ट्रेट का अधिकार दे दिया गया अर्थात अब उन्हें दीवानी मामलों की सुनवाई तथा दंडित करने का अधिकार दिया गया ।
      उपर्युक्त प्रावधानों के अलावा रेगुलेटिंग एक्ट की प्रमुख विशेषता यह भी थी कि इस अधिनियम के तहत पहली बार कंपनी की प्रशासनिक कार्यों को ब्रिटिश संसद के निगरानी में लाया गया जिनमें व्यापार और वाणिज्य का मामला शामिल नहीं था।

Tuesday, October 2, 2018

प्रश्न:- राज्य और उसकी अवधारणा को समझाते हुए राज्य के संदर्भ में नागरिकों के अधिकारों का वर्णन करें।

राज्य एक ऐसी संगठित व शासकीय इकाई है जिसका मुख्य उद्देश्य समाज कल्याण तथा व्यवस्थित और सुचारु रुप से समाज को विकास पथ पर लाना है।

आधुनिक संदर्भ में मैकियावेली ने 'राज्य' (द स्टेट) शब्द का प्रयोग 1513 ईस्वी  में अपनी पुस्तक "द प्रिंस" में भू-क्षेत्रीय संप्रभु सरकार के वर्णन करने हेतु किया था।

उल्लेखनीय है वेस्टफेलिया संधि 1648 ईस्वी के अनुसार राज्य होने के तीन तत्व थे जनसंख्या , क्षेत्र तथा सरकार परंतु मोंटेवीडियो कन्वेंशन 1913  ईस्वी के अनुसार किसी भी समुदाय संगठन को राज्य होने के लिए चार तत्वों का होना आवश्यक है_

    जनसंख्या,
    क्षेत्र,
    सरकार तथा
    संप्रभुता

राज्य के निवासी एवं राज्य में सहभागी को उस राज्य का नागरिक कहा जाता है जिसे राज्य द्वारा कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं ।

राज्य द्वारा नागरिकों को दिए गए अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार मताधिकार को माना जाता है क्योंकि नागरिक अपने मत का प्रयोग करके ही राज्य में सरकार का निर्माण करती है जो कि राज्य के चार आवश्यक तत्व में से एक है ।

इसके अलावा और अन्य अधिकार भी दिए गए हैं जो सिर्फ राज्य के नागरिक को ही प्रदान किया गया है जिनमें मौलिक अधिकार प्रमुख हैं ।

अन्य अधिकारों के साथ-साथ भारत में नागरिकों के लिए संवैधानिक पद तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण पद पर भी नियुक्ति के लिए मानदंडों में नागरिकता को आवश्यक अहर्ता के रूप में रखा गया है।

Monday, July 2, 2018

प्रश्न:-भारत के महान्यायवादी की संघीय कार्यपालिका के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में भूमिका स्पष्ट करें।

        संघीय कार्यपालिका राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद तथा भारत के महान्यायवादी से मिलकर बनती है। इस प्रकार भारत का महान्यायवादी संघीय कार्यपालिका का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

         संविधान के अनुच्छेद-76(1) के अनुसार राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश होने के योग्य किसी व्यक्ति को भारत का महान्यायवादी नियुक्त करता है। वह भारत सरकार का मुख्य कानूनी सलाहकार तथा उच्चतम न्यायालय में भारत सरकार का प्रमुख वकील होता है। महान्यायवादी भारत सरकार को विधि संबंधी विषयों पर सलाह देने के लिये नियुक्त किया जाता है। उसे विधि संबंधी उन अन्य कर्त्तव्यों का पालन भी करना पड़ता है, जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर निर्देशित करे। 

         महान्यायवादी को अपने कर्त्तव्यों के पालन में भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार होता है। संविधान में महान्यायवादी की पद-सीमा एवं हटाने की प्रक्रिया उल्लेखित नहीं है। अतः वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है और राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित पारिश्रमिक प्राप्त करता है।
         महान्यायवादी को संसद की सभी प्रक्रियाओं में बोलने और भागीदारी करने का अधिकार है, लेकिन वह किसी भी संसदीय प्रक्रिया में वोट नहीं कर सकता। वह संसद का सदस्य नहीं होता, परंतु उसे भी वह विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं जो एक संसद के सदस्य को प्राप्त होती हैं।
         इस प्रकार महान्यायवादी संघीय कार्यपालिका का एक अभिन्न अंग है, लेकिन भारत में सरकार बदल जाने पर या अन्य किसी कारण से सरकार के अस्तित्व में न रहने पर महान्यायवादी द्वारा त्यागपत्र देने की परम्परा है।